बेनामी आदिवासी आस्था-धर्म की व्यथा

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दिनांक 06.01.2011 को एक हिन्दी दैनिक में खबर छपी - ‘‘आदिवासी ही देश के असली नागरिक हैं।’’ खबर पढ़कर मन को सांतावना मिला कि - कोर्इ तो है जो भारत के आदिवासियों की सुधि लेता है। आज भी कुछ लोग हैं जो आदिवासियों के पहचान के बारे में अपनी उर्जा खरच रहे हैं। समाचार में कहा गया है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कण्डेय काटजू एवं जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की संयुक्त खण्डपीठ ने एक फैसले में पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य को आदिवासी युवक एकलव्य के साथ घोर अन्याय करने का दोषी पाया है। यह आदिवासियों के साथ सहस्त्राब्दियों से चले आ रहे अत्याचार का शास्त्रीय उदाहरण है।
इस फैसले से लगा कि विधि के ज्ञाताओं में भी कुछ लोग हैं जो भारत के आदिवासियों के बारे में सोचते हैं अन्यथा भारतीय संविधान में तो ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जो आदिवासियों को बिना पतवार के नाव में बैठने जैसा है। इस संबंध में भारत का संविधान (एक परिचय) के लेखक माननीय दुर्गा दास बासु ने कहा है कि संविधान में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की कोर्इ परिभाषा नहीं है किन्तु राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गर्इ है कि वह प्रत्येक राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके एक सूची बनाए। संसद इस सूची का पुनरीक्षण कर सकती है। (सं0 1989, पष्ृठ 355)। इसी तरह यू0एन0ओ0 में भारत सरकार के प्रतिनिधि ने कहा कि भारत में आदिवासी नामक कोर्इ चीज नहीं है। (हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान, 13 अगस्त 1991 र्इ0, यू0एन0ओ0 से लौटने के बाद स्व0 डॉ0 रामदयाल मुण्डा जी का वक्तव्य)। इन दिनों कर्इ नामी-गिरामी संगठनों में से इतिहास पुन:लेखन समिति के सदस्य, आदिवासी शब्द को गैर संवैधानिक मानने लगे हैं।

वैधानिक रूप से संविधान में आदिवासी कहे जाने वाले लोगों के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग किया गया है और इनके विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा एक मंत्रालय खोला गया है, जो एक कैबिनेट मंत्री की देखरेख में होता है। साथ ही इनके समुचित विकास के लिए एक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन किया गया है। इस आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सेवा निवृत आर्इ0पी0एस0 डॉ0 रामेश्‍वर उराँव हैं। अनुसूचित जनजाति की सूची में किसे शामिल किया जाए और किसे न किया जाय, इस निर्णय में आयोग की बहुत बड़ी भ्ाूमिका होती है। अनुसूचित जनजाति होने के लिए आयोग द्वारा निर्धारित मानदण्ड की निर्देशिका के कंडिका 12ण्1 ;पअद्ध में कहा गया है कि - जब कोइ व्यक्ति जन्म से एक अनुसूचित जनजाति से संबंधित होने का दावा करता है वहाँ यह प्रमाणित किया जाना चाहिए ;पद्ध ... ;पपद्ध... ;पपपद्ध ... ;पअद्ध वह किसी भी धर्म के अनुयायी हो सकते हैं। इसी तरह कंडिका 9.1 में किसी समुदाय को एक अनुसूचित जनजाति के रूप में विनिर्देशन के लिए अनुसरन किए जाने वाले मानदण्ड निम्नलिखित हैं - (क) आदिम विशेषताओं के संकेत (ख) विशिष्ट संस्कृति (ग) भौगोलिक एकाकीपन (घ) समुदाय में सम्पर्क में संकोच तथा (ङ) पिछड़ापन।

आयोग के उपरोक्त मानदण्ड में भाषा एवं परम्परा-विश्‍वास की बात गौन हो गर्इ है, जबकि आजादी के पूर्व यह मुख्य मुद्दा हुआ करता था। इन तथ्यों पर गौर करने पर पता चलता है कि विधि निर्माताओं के लिए भाषा एवं परम्परा-विश्‍वास कोर्इ अहमियत नहीं रखता है। क्या, आदिवासियों के परम्परा-विश्‍वास को कोर्इ नाम नहीं मिलेगा ? या भारत के मानचित्र में बिना नाम के गुमनाम रह जाएगा ? विधि वेत्ताओं को इन प्रश्‍नों के उत्तर देने के लिए आगे आना चाहिए अन्यथा सदियों से भारतीय धर्म, परम्परा को संजोकर रखने वाले ही अपने घर में बेनामी एवं बेमानी रह जाएंगे। भारतीय समाज भी इस विन्दु पर तमाशबीन बनकर खड़ा है। हर कोर्इ इस बड़े समूह को अपने में मिलाने की अवसर ढूँढ़ रहा है। हिन्दु समूह कहता है - यह तो हमारा ही अंग है। र्इसार्इ समूह, शिक्षा और स्वास्थ्य की दुहार्इ देकर अपने साथ जोड़ने में लगा हुआ है। मुस्लिम समूह चुपचाप निहार रहा है। निरीह आदिवासी भला, क्या करे ?

देश की आजादी के बाद लगातार आदिवासियों की धार्मिक पहचान के नाम पर आन्दोलन एवं चर्चाएँ होते रहे और होते रहेंगे, चूँकि यह आन्दोलन उनके स्वाभिमान का आन्दोलन है। वर्तमान में झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओड़िसा, प0 बंगाल, असम आदि राज्यों में निवासरत लगभग 1 कराड़ से अधिक लोग अपने विश्‍वास-धर्म का नाम सरना धर्म के नाम से अपने-अपने राज्य के राज्यपाल एवं केन्द्र सरकार के गृह मंत्री से मिलकर अपनी मांगे रख चुके हैं जो अबतक बेअसर साबित हुआ है। इस कड़ी में राँची स्थित र्इसार्इ महाधर्मप्रांत के पहल पर रोम में आयोजित विश्‍व धर्म सम्मेलन 2011 में आदिवासियों के बीच से सरना धर्म के नाम से प्रतिनिधित्व का अवसर प्राप्त हुआ। इस सम्मेलन में सरना धर्म के प्रतिनिधि के रूप में पेशे से इंजिनियर श्री नुकेश बिरूवा को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला और उन्होंने अपने गुण और ज्ञान से विश्‍व के दूसरे धर्म-सम्प्रदाय के सामने आदिवासी परम्परा-विश्‍वास की उपस्थ्िित दर्ज करायी। विदेशों में यह सार्थक प्रयास प्रशंसनीय रहा किन्तु अपने ही देश में अबतक यह आन्दोलन तिरस्कृत एवं उपेक्षित है। राजकीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा उपेक्षित व्यवहार आदिवासियों के लिए दिनों -दिन कुण्ठा का कारण बनता जा रहा है और एक कुण्ठित व्यक्ति और समाज अपने लिए कुछ भी करने को उमादा रहता है।

क्या, आदिवासियों की कुण्ठा दूर करने एवं उनके मनोबल को उँचा उठाने के लिए उनके परम्परा-विश्‍वास को विश्‍व पटल पर लाने में सरकार या संस्था पहल करेगी या वे बेनामी और गुमनामी की जिंदगी जीते रहेंगे ?

- डॉ नारायण उराँव ‘सैन्दा’

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