तोलोङ सिकि के विकास की रूपरेखा

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कहा जाता है - ‘‘ आवश्‍यकता आविष्कार की जननी है।’’ इस कहावत को एक बार फिर डा नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’ ने चरितार्थ किया है। पेशे से चिकित्सक डा उराँव एक कुँडु़ख़ (उराँव) गाँव के रहने वाले एक अत्यंत साधारण किसान के बेटे हैं। उनके पिता का नाम स्व भुनेश्‍वर उराँव तथा माता का नाम श्रीमती फूलमनी उराँव है। उनका पैतृक निवास झारखण्ड राज्य (भारत) के गुमला जिला, सिसई थाना के अन्तर्गत ‘‘सैन्दा’’ ग्राम है। उनकी शिक्षा-दीक्षा पाँचवीं कक्षा तक गाँव के स्कूल में हुई तथा मैट्रिक की परीक्षा वर्ष 1979 में प्रखण्ड मुख्यालय सिसई के संत तुलसीदास उच्च विद्यालय, सिसई, (गुमला) से पूरी हुई।

तत्‍पश्‍चात सन 1979-81 में राँची विश्‍वविद्यालय, राँची के राँची कालेज, राँची से आई0एससी0 की पढ़ाई पूरी की। सत्र 1981-82 में दरभंगा चिकित्सा महाविद्यालय, लहेरियासराय (बिहार) में एमबीबीएस की पढ़ाई हेतु दाखिला लिया और वर्ष 1989 में एम0बी0बी0एस0 की पढ़ाई पूरी की। एम0बी0बी0एस0 की पढ़ाई के दौरान उन्हें अपने कॉलेज में तीन साईनडाई, एक बाढ़, एक भूकम्प जैसी त्रासदी झेलने पड़े जिसके चलते अपने पढ़ाई के सत्र में काफी संघर्ष करना पड़ा किन्तु इस लम्बी अवधि में इन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के चलते अपने समाज एवं अपनी भाषा-संस्कृति के दशा एवं दुर्दशा के बारे में भास हुआ और उससे निजात पाने के लिए उपाय ढूँढने लगे।

वर्ष 1989 में एम0बी0बी0एस0 की परीक्षा पास करने के बाद एक इंटर्न चिकित्सक का कार्यभार संभालने के क्रम में एकबार उनकी नजर एक गर्भ निरोधक दवाई माला-डी की पर्ची पर पड़ी जिसपर सभी Official Scheduled Language में माला-डी का एक ही नुस्खा को अलग-अलग तरीके से समझाया गया था। इसी तरह एक बार फिर उनकी नजर एक सौ रूपये की नोट पर पड़ी उसमें भी तत्कालीन सभी Scheduled Language में ‘‘एक सौ रूपया’’ लिखा हुआ था। इन दो घटनाओं को देखकर उनके मन में एक जिज्ञासा जगी, काश यदि उनकी भाषा को भी आठवीं अनुसूचि में शामिल किया गया होता तो इन दोनों जगहों पर अपनी मातृभाषा भी छपी होती । इसी उधेड़बुन में उन्होनें हिन्दी एवं अंग्रेजी व्याकरण की कई पुस्तकें पढ़ डाले और अपनी भाषा को लिखने हेतु उपाय ढुँढनें लगे।

उन्हें बचपन से ही भाषा विज्ञान पढ़ने का शौक था। वर्ष 1989 में ही उनके द्वारा लिखि गई पुस्तिका ‘‘सरना समाज और उसका अस्तित्व’’ नाम से प्रकाशित हुई, जिसपर काफी चर्चा हुई। उसके बाद एक इंटर्न चिकित्सक का कार्य के चलते अपनी व्यस्तता में से इस ओर अधिक समय नहीं दे पाये। इस प्रकार वर्ष 1990 का वर्ष गृह चिकित्सक के रूप में बीता। तत्पश्‍चात नवम्बर 1990 को बिहार स्वास्थ्य सेवा में एक चिकित्सा पदाधिकारी के रूप में प्रथम योगदान दुमका जिला (अब झारखण्ड में) के रामगढ़ प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में किया।

चिकित्सा पदाधिकारी का दायित्व वहन करते हुए उनका संथाल परगना के संताली विद्वानों एवं समाज सेवियों के साथ सम्पर्क हुआ जिससे उनके लिपि विज्ञान संबंधी कार्य में उत्तरोत्तर प्रगति होने लगी और अंततः एक वर्णमाला तैयार कर 15 मई 1993 को Tribal Research Analysis Communication & Education (TRACE) नामक संस्था के समक्ष अपनी बातें रखी जिसे सर्वप्रथम दिनांक 6 सितम्बर 1993 को करमा पूर्व संध्या समारोह में आम जन के समक्ष प्रस्तुत किया गया और इसे दैनिक समाचार पत्र ‘आज’ द्वारा दिनांक 7 अक्टूबर 1993 को प्रकाषित किया गया। इस पर आधारित एक प्राथमिक पुस्तिका तैयार कर ली गई और सर्वप्रथम दिनांक 18-25 फरवरी 1994 तक चले हिजला मेला, दुमका में प्रदर्षित की गई।

इस बीच पूरे झारखण्ड में ऑल झारखण्ड स्टुडेन्टस यूनियन (आजसू) का छात्र आन्दोलन तेजी पर था। इस आन्दोलन के अग्रणी छात्र नेता श्री विनोद कुमार भगत एवं श्री प्रभाकर तिर्की आदि डा उराँव के कार्य से सहमत हुए और इसके प्रचार-प्रसार में योगदान किया। इसी क्रम में सरना फूल सरहुल विशेषांक वर्ष 1994, झारखण्ड ज्योति (मासिक पत्रिका) पटना, 15 मई 1994, हिन्दी दैनिक आवाज, धनबाद, 14 जून 1994, हिन्दी दैनिक आज 21 जून 1994 आदि में खबर छपी। इसी बीच एक तमिलभाषी महिला डा अनन्ती जेबा सिंह द्वारा प्रस्तुत ‘‘बराती लिपि’’ जिसे कुँड़ुख़ कत्थ जतरा, गुमला नवम्बर 1992 में सामयिक लिपि कह कर आगे परिचर्चा कराये जाने की आवष्यकता का निर्णय लिया गया था, देखने को मिला। इस प्रस्तुति का अध्ययन करने के पष्चात डाॅ0 उराँव ने ‘‘बाराती लिपि’’ का विरोध किया और एक विस्तृत लेख ‘‘निष्कलंका’’ पत्रिका में अप्रैल 1995 में छपा।

उसके बाद दिनांक 15 अक्टूबर 1995 को राज्य सम्पोषित उच्च विद्यालय, रामगढ़ (दुमका) के प्रांगण में एडवोकेट श्री बासुदेव बेसरा की अध्यक्षता में तथा दिनांक 18 फरवरी 1996 दिन रविवार को गॉस्सनर कॉलेज, राँची के प्रांगण में डा एस0 बी0 महतो की अध्यक्षता में बैठक हुई। उक्त दोनों बैठक में लिपि की विकास की आवश्‍यकता एवं लिपि की कमियों के बारे में प्रश्‍न किये गये।

उक्त बैठकों में उठे प्रष्नों का उत्तर ढूँढने हेतु डा उराँव द्वारा Central Institute of Indian Language, Mysore के प्राध्यापक एवं निदेषक डा फ्रांसिस एक्का से सम्पर्क किया गया और दिनांक 28 एवं 29 जुलाई 1996 को पटना (बिहार) में (जो ACTION AID नामक स्वयंसेवी संस्था के कार्यक्रम में एक भाषाविद् के रूप में आमंत्रित थे) मुलाकात कर अपनी समस्याओं से अवगत कराया। डा एक्का एवं डा उराँव के बीच विचार-मंथन के पष्चात् डा एक्का द्वारा निम्नांकित सुझाव दिये गये:-
1. आदिवासी भाषा की नई लिपि होनी चाहिए।
2. नई लिपि जनजातीय पहचान का प्रतीक हो।
3. नई लिपि एक ध्वनि एक चिह्न के अन्तर्राष्ट्रीय सिद्वान्त के अनुरूप होनी चाहिए।
4. लिपि चिह्न का नाम एवं ध्वनिमान एक होना चाहिए, न कि अलग-अलग।
5. लिखने एवं पढ़ने में समानता हो।
6. लिपि चिह्न लिखने में सुविधाजनक हो।
7. वर्णा को एक के बाद एक लिखा जाना चाहिए न कि उपर निचे।
8. सभी मूल ध्वनियों का संकेत रखा जाना चाहिए।
9. सभी Allophones के लिए ध्वनि चिह्न रखना मुष्किल है अतः Phonems के लिए ही ध्वनि चिह्न रखें जायें।
10. अधिक से अधिक लिपि चिह्न Anticolockwise हो तथा Sitting Script  के समूह की हो।
11. नई लिपि वर्णात्मक लिपि हो, क्योंकि भाषा विज्ञान वर्णात्मक लिपि को अक्षरात्मक लिपि की तुलना में श्रेष्ठ मानता है।
12. वर्णमाला की संरचना सरलता के कठिनता की ओर हो।
कुछ दिनों के पष्चात् डा उराँव द्वारा भाषाविद् डा एक्का के सुझाव को आंषिक अनुषरण करते हुए वर्णमाला संषोधित कर Graphics of Tolong Siki नामक पुस्तक की रचना की गई जिसका लोकार्पण दिनांक 5 मई 1997 को कुँड़ुख़ साहित्यकार स्व अह्लाद तिर्की, प्रभात खबर के मुख्य सम्पादक हरिवंश जी तथा पद्मश्री डा रामदयाल मुण्डा की उपस्थिति में हुआ। इस समारोह में डा उराँव द्वारा प्रस्तुत तरीके को अपर्याप्त बताते हुए भाषा विज्ञान के नियमों के आधार पर पुनः संषोधन करने का मार्गदर्षन दिया गया।

निष्कर्ष में डा रामदयाल मुण्डा द्वारा सुझाव दिया गया कि -
1) यह लिपि एक ध्वनि एक संकेत के अन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड के अनुरूप हो।
2) वर्णमाला की संरचना सरलता के कठिनता की ओर हो।
3) कम से कम चिह्नों से अधिक से अधिक ध्वनियों को लिखा जा सके।
4) लिखने एवं पढ़ने में एकरूपता हो।
5) अनावष्यक चिह्नों को हटा दिया जाय।
6) यह जनजातीय पहचान का प्रतीक हो।

इन दोनों विद्वानों के मार्गदर्षन के आधार पर डाॅ0 उराँव ने दोगुने जोष के साथ आगे काम करना षुरू किया और 20 जुलाई 1997 को सत्यभारती राँची के सभागार में खड़िया भाषा के विद्वान स्व0 जुलियस बाऽ की अध्यक्षता में बैठक करायी गई। बैठक में निर्णय लिया गया कि संषोधित वर्णमाला को भाषाविद् डाॅ0 फ्रांसिस एक्का के पास भाषा वैज्ञानिक विष्लेषण एवं मान्यता हेतु भेजा जाय। बैठक में लिये गये निर्णय के आलोक में 21 जुलाई 1997 को तोलोङ सिकि का संषोधित वर्णमाला डाॅ0 एक्का के पास भेजा गया।

प्रत्युत्तर में डाॅ0 एक्का ने अपने वैयक्तिक पत्र दिनांक 27 नवम्बर 1997 के माध्यम से ‘तोलोङ सिकि’ के सृजन को अत्यंत सराहनीय कदम बताया औैर इसे सरकारी मान्यता दिलाने हेतु सामाजिक सह राजनैतिक जागरूकता एवं सहयोग की आवष्यकता बतायी। इसी क्रम में दिनांक 22 जनवरी एवं 24 जनवरी 1998 को होटल महाराजा, राँची में भाषाविद् डाॅ0 फ्रांसिस एक्का, डाॅ0 नारायण उराँव, विषप डाॅ0 निर्मल मिंज, डाॅ0 रामदयाल मुण्डा, फा0 प्रताप टोप्पो, श्री मनोरंजन लकड़ा, डाॅ0 नारायण भगत, श्री मंगरा उराँव एवं श्री विवेकानन्द भगत की उपस्थिति में एक बैठक हुए जिसमें तोलोङ सिकि (लिपि) के विकास की तकनीकी पहलुओं पर विचार विमर्ष हुआ और यह निर्णय लिया गया कि नई लिपि का आधार सामाजिक एवं सांस्कृतिक हो जो वर्तमान टेक्नोलाॅजी पर भी खरा उतरे।
भाषाविदों एवं षिक्षाविदों से मार्गदर्षन प्राप्त करने के पष्चात दिनांक 19 सितम्बर 1998 को तत्कालीन बिहार जनजातीय षोध एवं समाज कल्याण संस्थान, मोरहाबादी, राँची में सभागार में आयोजित ‘‘कुँड़ुख़ भाषा साहित्य लिपि: दषा और दिषा’’ विषयक सेमिनार विषप डाॅ0 निर्मल मिंज की अध्यक्षता में सम्पन हुई इसमें डाॅ0 उराँव द्वारा ‘तोलोङ सिकि’ की प्रस्तुति कर उसके औचित्य पर विस्तृत जानकारी दी गई जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।

उसके बाद दिनांक 15 मई 1999 को एक संवाददाता सम्मेलन में डाॅ0 रामदयाल मुण्डा, पूर्व कुलपति, राँची विष्वविद्यालय, राँची तथा डाॅ0 श्रीमती इन्दुधान, पूर्व कुलपति, मगध विष्वविद्यालय, बोधगया एवं सिद्धु-कान्हु मुर्मु विष्वविद्यालय, दुमका के द्वारा इस लिपि को जनसामान्य के व्यवहार हेतु लोकार्पित कर दिया गया। जनसामान्य हेतु लोकार्पण के बाद दिनांक 23 जनवरी 2000 को विनोवाभावे विष्वविद्यालय, हजारीबाग के पूर्व कुलपति डाॅ0 बहुरा एक्का की अध्यक्षता में कार्तिक उराँव बाल विकास विद्यालय, सिसई, गुमला में ‘तोलोङ सिकि’ की पढ़ाई-लिखाई का षुभारंभ किया गया।

इसके पूर्व कुँडु़ख कत्थ खोंड़हा लूरएड़पा, भगीटोला, डुमरी, गुमला (झारखण्ड) के कर्मठ समाज सेवी एवं चिंतक फा0 जेफ्रेनियुस बख़ला की अगुवाई में कइलगा पुस्तक का प्रथम संस्करण 1998 के आधार पर वर्ष 1999 से अपने विद्यालय में पठन-पाठन आरंभ किया गया। इस विद्यालय की खाषियत यह है कि यहाँ पहली कक्षा से तीसरी कक्षा तक बच्चों की षिक्षा का माध्यम कुँडु़ख़ भाषा एवं लिपि है। तीसरी कक्षा के बाद इन बच्चों द्वारा अंग्रेजी एवं हिन्दी विषयों की पढ़ाई आरंभ की जाती है। इस विद्यालय का पहला बैच वर्ष 2009 में कुँडु़ख़ भाषा पत्र का उत्तर तोलोङ सिकि में लिखकर मैट्रीक की परीक्षा पास किया। झारखण्ड अधिविद्य परिषद, राँची द्वारा जारी विज्ञप्ति सं0 17/2009 इसी विद्यालय से संबंधित छात्रों, अभिभावकों एवं षिक्षकों के लिए प्रकाषित किया गया था।

इसी क्रम में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद, षाखा - रातू, राँची (झारखण्ड) द्वारा संचालित आदिवासी बाल विकास विद्यालय रातू, राँची में वर्ष 2002 से तोलोङ सिकि के माध्यम से तीसरी कक्षा से सातवीं कक्षा तक कुँडु़ख़ भाषा की पढ़ाई-लिखाई होती है।

कुँड़ुख़ समाज से मान्यता मिलने के पष्चात सत्यभारती, राँची द्वारा प्राथमिक पुस्तक ‘‘कइलगा’’ का संषोधित संस्करण नवम्बर 2000 को प्रकाषित किया गया तथा श्ळतंचीपबे व िज्वसवदह ैपापश् पुस्तक का संषोधित स्वरूप अगस्त 2001 को प्रकाषित हुआ।

इस लिपि यानि ‘‘तोलोङ सिकि’’ का कम्प्यूटर वर्जन ‘‘केलि तोलोङ’’ के नाम से श्री किसलय जी द्वारा तैयार किया गया जिसे दिनांक 20 नवम्बर 2002 को कार्डिनल तेलेस्फोर पी0 टोप्पो, डा करमा उराँव, पत्रकार श्री हरिवंष जी, श्री मनोरंजन लकड़ा, फा0 प्रताप टोप्पो, डाॅ0 नारायण उराँव, डाॅ0 नारायण भगत, श्री हिमांष कच्छप, श्रीमती मीना टोप्पो, श्रीमती ज्योति टोप्पो, डाॅ0 ग्रेगोरी मिंज आदि की उपस्थिति में लोकार्पित किया गया।

उसके बाद डा नारायण उराँव ‘सैन्दा’ द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘तोलोङ सिकि का उद्भव और विकास’’ दिनांक 06.12.2003 को संत जाॅन स्कूल, राँची के सभागार में मुख्य अतिथि डाॅ0 बहुरा एक्का द्वारा लोकार्पित किया गया।

पुनः दिनांक 03.04.2007 को तोलोङ सिकि (लिपि) का संषोधित एवं परिवर्द्धित संस्करण (अपग्रेडेड वर्जन) राँची विष्वविद्यालय, राँची के केन्द्रीय पुस्तकालय के सभागार में मुख्य अतिथि श्री बंधु तिर्की, मंत्री, झारखण्ड सरकार, मानव संसाधन विकास विभाग के द्वारा लोकार्पित किया गया।

इसके अतिरिक्त ज्ञनतनग स्पजमतंतल ैवबपमजल व िप्दकपं द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कुँड़ुख़ भाषा सम्मेलन में वर्ष 2006 (राँची, झारखण्ड), 2007 (नई दिल्ली), 2008 (सिलिगुड़ी, पं0 बंगाल) तथा वर्ष 2009 (रायपुर, छतीसगढ़) में आयोजित कुँडु़ख़ भाषा सम्मेलन में तोलोङ सिकि (लिपि) पर विषेष परिचर्चा करवायी गई, जहाँ इसे काफी सराहा गया और जन साधारण इसे आगे बढ़ा रहा है।
इसी प्रकार ‘‘कुँडुख (उराॅव) प्रगतीषील समाज छत्तीसगढ़’’ ने दिनांक 11.02.2007 को अपने प्रादेषिक सम्मेलन में तोलोङ सिकि को स्वीकार करते हुए डाॅ0 नारायण उराँव को सम्मानित किया।

साथ ही ‘‘कुँड़ख उराँव उन्नति समाज झारखण्ड, राँची’’ के महासम्मेलन में दिनांक 02.05.2007 को तोलोङ सिकि की प्रस्तुति को सराहा गया तथा तोलोङ सिकि को सरकारी मान्यता प्राप्त करने की दिषा में कार्य किये जाने की घोषणा की गई।

इस लिपि को इस मुकाम तक पहुँचाने में डाॅ0 नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’ के साथ स्व. डाॅ. फ्रांसिस एक्का, कार्डिनल तेलेस्फोर टोप्पो, विषप डाॅ. निर्मल मिंज, डाॅ. रामदयाल मुण्डा, फा. अगुस्तिन केरकेट्टा, श्री सरजियस मिंज, डाॅ. बहुरा एक्का, डाॅ करमा उराँव, डाॅ. लक्ष्मण उराँव, श्री मंगरा मुण्डा, फा. जेफ्रेनियुस बख़ला, फा. डाॅ. बेनी एक्का, फा. क्लेमेन्ट टोप्पो, फा. प्रताप टोप्पो, रेभ. सिरिल हंस, डाॅ. हरि उराँव, डाॅ. नारायण भगत, ई. अजित मनोहर खलख़ो, ई. देवेष भगत, श्री जयप्रकाष भगत, श्री रामकुमार बेक, श्री मनोरंजन लकड़ा, श्री विवेकानन्द भगत, श्री अषोक बख़ला, श्री मंगरा उराँव, श्री विनोद भगत (लोहरदग्गा), श्री विनोद कुमार भगत (पूर्व पार्षद, जैक), डाॅ. प्रभाकर तिर्की, श्री अब्राहम मिंज, श्री अगुस्तुस तिग्गा, श्री अगस्तिन बख़ला, डाॅ. विनय कुमार मिश्रा, डाॅ. अजय कुमार झा, श्री षिवषंकर उराँव, श्री हेमन्त टोप्पो, स्व0 श्री विवेकानन्द भगत, श्री नाबोर एक्का, प्रो0 प्रवीण उराँव, प्रो0 इन्द्रजीत उराँव, डाॅ. एल. एन. पी. बाड़ा, श्री सिलास बाड़ा (टंकक), फा. एलक्सियुस एक्का, श्री रमेष कुमार षाह, श्री अजित चैहान, श्री मरकुस बेक, डाॅ (श्रीमती) उषा रानी मिंज, डाॅ. (श्रीमती) षांति ख़लखा़े, डाॅ. (श्रीमती) ज्योति टोप्पो, कम्प्यूटर प्रोग्रामर श्री किसलय जी एवं काथलिक प्रेस, राँची, सत्यभारती, राँची, सिरसिता प्रकाषन, राँची,TRACE, राँची, Kurux Literary Society of India, New Delhi कुँडु़ख़ कत्थ खोंड़हा लूरएड़पा भगीटोली, डुमरी, गुमला (झारखण्ड), कार्तिक उराँव बाल विकास विद्यालय, रातूं, राँची (झारखण्ड), कार्तिक उराँव बाल विकास विद्यालय, सिसई, गुमला (झारखण्ड) के कुषल कर्मियों एवं षिक्षकों का महत्वपूर्ण योगदान है। साथ ही झारखण्ड सरकार के पदाधिकारी, डा प्रकाष चन्द्र उराँव, श्रीमती सुनिला बंसत, आई.ए.एस., श्री पोलिकार्प तिर्की, झा.षि.से. एवं श्री यूजिन मिंज, झा.षि.से. का विषेष योगदान रहा है।

कुँडु़ख़ भाषियों का क्षेत्र
1. झारखण्ड -
2. बिहार -
3. छत्तीसगढ़ -
4. मध्यप्रदेष -
5. उत्तरप्रदेष -
6. हिमाचल प्रदेष -
7. पं0 बंगाल -
8. उड़िसा -
9. असम -
10. त्रिपुरा -
11. महाराष्ट्र (विदर्भ) -
12. अंडामन निकोबार -

विदेष
1. नेपाल -
2. भूटान -
3. बंगलादेष -

तोलोङ सिकि (लिपि) के बारे में उपलब्ध पुस्तकें:-
1. Graphics of Tolong Siki . 1997
2.Origin and Development of Tolong Siki - 2003
3. कइलगा (प्राथमिक पुस्तिका) - 1998
4. तुङुल (प्राथमिक पुस्तिका) - 2003
5. चींचो डण्डी अराख़ीरी (अनुवादित) - 2009
6. ख़द्दी चन्द्दो (अनुवादित) - 2009
7. कुँडु़ख़ मइनता अरा बक्क अइन - 2010

तोलोङ सिकि की संपोषक संस्थाएँ
1. कुँड़ुख़ कत्थ खोड़ंहा लूरडिप्पा भगीटोला, डुमरी, गुमला (झारखण्ड)
2. कार्तिक उराँव बाल विकास विद्यालय, रातूं, राँची (झारखण्ड)
3. कार्तिक उराँव बाल विकास विद्यालय, सिसई, गुमला (झारखण्ड)
4. कुँड़ुख़ उराँव समाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था, साउथ दिनाजपुर,
पं0 बंगाल।
5. Kurux Literary Society of India, New Delhi

संयोजक
‘‘हिन्द राजी तोलोङ सिकि बींड़ना बिड़हा’’

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