साधारणतया राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य परिचर्चाओं में जनजातीय स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण विषय हुआ करता है। इन परिचर्चाओं में - 1. स्वच्छ पेयजल 2. कुपोषण 3. सुरक्षित प्रसव 4. नशापान 5. गरीबी 6. अशिक्षा आदि विषय मुख्य रूप से हुआ करते हैं। क्या, ये विषय आदिवासी समाज में चिकित्सा विज्ञान के विकास के बाद आया ? क्या, ये प्रश्न पूर्व के आदिवासी समाज में नहीं था ?
ये तमाम प्रश्न मानव जीवन से जुड़े हुए प्रश्न है। जहाँ मानव जीवन है वहाँ ये प्रश्न उठेंगे ही। ये प्रश्न पूर्व में भी था और आज भी है। जिस समाज ने इन प्रश्नों को अच्छे से समझने का प्रयास किया, वह आज खशहाल है और जिसने कोताही बरती, वह मानव विकास के रास्ते में पिछड़ गया। झारखण्ड का आदिवासी समाज इन प्रश्नों का उत्तर ढॅूँढ़ पाने में कम सफल रहा जिसका परिणाम वर्तमान आदिवसी समाज है। आज आदिवासी पुरूष वर्ग में, खाश कर युवाओं में नशापान का आदत लग गर्इ है। जब समाज का पुरूष वर्ग ही नशापान में उलझा हुआ हो तो बाकी प्रश्नों का क्या ? आज प्रत्येक अखबार के पन्नों में कहीं न कहीं आदिवासियों के बुरी आदतों के बारे मे लिखा हुआ मिलता है। क्या, ये इतने बुरे हो गए कि - वे हँसी का पात्र बने हुए हैं ? क्या, वे इतने दूर चले गए, जहाँ से वे वापस नहीं आ सकते हैं ? इन सवालों का जबाब युवा वर्ग को ढूँढ़ना होगा !
इस शीर्षक के माध्यम से उपरोक्त बातों को समझने का प्रयास किया गया है। वर्तमान समय में गरीबी और अशिक्षा उन तमाम चीजों का जड़ है। पूर्व में तो कोर्इ दाता दानी देने वाला नहीं था अतएव खाने के लिए कमाना ही पडता था। उराँव भाषा में एक कहावत है - ननोय होले ओनोय अर्थात कमाओगे तो खाओगे। यदि अशिक्षा का तात्पर्य वर्तमान स्कूली शिक्षा से है, तो पहले के अउदिवासियों को अशिक्षित कहा जा सकता है किन्तु ज्ञान उर्जा की बात करें तो वे किसी समाज के लोगों से पीछे न रहे होंगे। जीवन जीने के लिए जो आवश्यक ज्ञान की जरूरत रही होगी हैं, वह ज्ञान उनके पास थी और है। जरूरत है उसे निखारने और प्रभावशाली बनाने की।
स्वच्छ जल के संबंध में आदिवासी समाज का अपना दृष्टिकोण था। तभी तो समाज में बरसात शुरू होने के बाद यानि आसाढ़ महीने के द्वितीया से लेकर रा:जी बहुरारना अर्थात भादो महीना के सातवें दिन तक दूसरे गाँव में मेहमान जाना मनाही था तथा कोर्इ भी शुभ कार्य, जैसे शादी-व्याह का शुरूआत करना आदि के लिए वर्जना की गर्इ थी। वर्तमान में भी परम्परागत उराँव समाज द्वारा शादी-व्याह के रश्म का शुभारंभ करमा त्योहार (भादो एकादशी) के बाद ही किया जाता है। इस वर्जना एवं मनाही में स्वच्छ जल की स्वास्थ्य शिक्षा की अवधारना निहित है। बरसात शुरू होने के बाद नदी नालों के जल में रोग के किटाणुओं की मात्रा अधिक रहती है - जैसे, हैजा, आंत्रशोध, मियादी बुखार (टायफड) आदि। ये रोग किटाणु युक्त पानी पीने से होता है। शायद भादो महीने के प्रथम सप्ताह तक दूसरे गाँव जाकर मेहमान नवाजी किया जाना मनाही होने के पीछे तर्क रहा होगा कि भादो महीने के प्रथम सप्ताह तक खेत-खलिहान एवं नदी-नालों का पानी में रोग के किटाणु में कमी हो गर्इ होगी और हैजा आदि का खतरा मि हां गया होगा। इसी तरह बरसात आरंभ होते ही कर्इ तरह के वायरल इन्फेक्सन एक महामारी की तरह होते रहते थे। वर्तमान में चिकित्सा विज्ञान द्वारा कर्इ वायरल इन्फेक्सन रोग पर काबू पा लिया गया है। वायरल इन्फेक्सन का ठीक-ठीक इलाज कर पाना विज्ञान के लिए भी एक पहेली बना हुआ है। यों तो बहुत से वायरल विमारी से बचने के लिए रोग से पूर्व के बचाव के तरीके (प्रिभेन्सन) को ही अच्छा माना गया है। शायद आदिवासी समाज में कर्इ ऐसे कारणों को न समझ पाने के चलते इसे देवी प्रकोप मान लिया गया और बरसात आरंभ होने से पहले (जेठ महीना में) पच्चो करम/बुढ़िया करम/रो:गे करम के नाम से रोग विमुक्ति के लिए पूजा अनुष्ठान करने की विधि अपनायी गयी। बुढ़िया करम के दिन गाँव की बुजुर्ग महिलाएँ उपवास कर पूरे घर को गोबर से लीपती हैं और अखड़ा के पास एक टोकरी में जमा करती हैं। इस बीच गाँव के बुजुर्ग किसी निर्धारित स्थान से करम पेड़ की तीन डाली काटकर लाते हैं और अखड़ा में पहान द्वारा गाड़ कर पूजा अर्चना की जाती है। इस पूजा का आशय यह है कि दैवीय कृपा से गांव में रोग-विमारी न हो। गांव के देवी-देवता गांव में विमारी न आने देवें।
कुपोषण के संबंध में आदिवासियों को जानकारी थी किन्तु वे किसी विशेष उपचार विधि को नहीं अपना पाये। यों तो नवजात शिशु को स्तनपान कराने का ही उनका रिवाज है किन्तु जो बच्चे को माँ का दूध नहीं मिल पाता वैसे बच्चे अकसरहाँ कुपोषित पाये जाते हैं। दूसरी बात, पूर्व में गांव में दलहन की खेती अब की तुलना में अधिक होती थी, जिससे प्रोटीन की कमी से होने वाले कुपोषण में कमी रहती थी।
गर्भधारण और प्रसव एक स्वभाविक प्रक्रिया है किन्तु 100 में से लगभग 5 प्रसव कभी-कभी अस्वभाविक हो जाता है, जिससे बच्चा और जच्चा दोनों को खतरा रहता है और मृत्यु तक हो जाया करती थीं। इस आपदा से बचने के लिए आदिवासी समाज उपाय नहीं ढूँढ़ पाया और दैवीय कृपा के लिए कर्इ नियम बना डाले। इन नियमों में से देवी माता की पूजा अर्चना तथा अपना चाल-व्यवहार को संयमित और अनुशासित रखना आदि था। इसके तहत विवाहिता को अपने जेठ का नाम न पकड़ना तथा उनसे स्पर्श होने से बचना होता था। इस रिश्ते को भाहो-भँयसुर का रिश्ता कहा जाता है। इस नियम की अवहेलना करने पर विवाहिता को प्रसव काल में तकलीफ होने की बात कही जाती है। अब सरकार द्वारा चलाये जा रहे सुरक्षित प्रसव केन्द्र में महिलाएँ पहुँच रही हैं और नर्इ तकनीक एवं सरकारी सहायता का लाभ उठा रहीं हैं।
नशापान के बारे में आदिवासी समाज बदनाम है। यह इतना भयावाह हो चुका है कि आदिवासी नाम का परिचय के साथ ही लोग मान चुके होते हैं कि अमुक व्यक्ति निश्चय ही शराब पीता होगा तथा मांसाहारी होगा। अब रांची शहर में रहने वाले कुछ बुद्धिजीवी इस कमजोरी का नाजायज फायदा उठा रहे हैं। लोग यह कहने से नहीं हिचकते कि - रांची या रांची के आसपास अच्छे से रहना है तो आदिवासी पुजारी यानि पहान को पटाकर रखो। पहान को पटाने के लिए कभी-कभार पर एक बोतल अंगरेजी दारू और एक मुर्गा खरच करते रहना पड़ेगा। नवयुवकों की स्थिति भी पहले से बिगड़ती जा रही है। अगर किसी नवयुवक को समझाना हो तो वे तुरंत आदिवासी संस्कृति की दुहार्इ देते नजर आएंगे। क्या, सचमुच आदिवासी संस्कृति में नशापान सामाजिक रूप से जायज था ? इस प्रश्न के उत्तर में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि नशा सेवन, आदिवासी संस्कृति में सामाजिक सहभागिता एवं समरसता बनाये रखने के लिए एक निर्धारित उम्र के लोगों तक सीमित था। आधुनिक और विकसित समाज इसे सोसियल ड्रिंक कहता है। आदिवासी समाज इसे किस रूप आगे बढ़ाता है यह तो समय ही बतलाएगा। वैसे सामाजिक बैठकों में यदि पंक्ति में बैठे लोगों के साथ किसी बच्चे के लिए हँड़िया वितरित किया जाता था तो बुजुर्ग महिलाएँ नसीहत देतीं थीं कि बच्चे को अभी मत दो। जब वह समधी जोड़ने लायक हो जाएगा तब उसे देना। इस नसीहत और वर्जना में स्वास्थ शिक्षा की अवधारना निहित है। युवा वर्ग की परिभाषा में 18 वर्ष से 40 वर्ष तक का व्यक्ति आते हैं। समधी जोड़ने का उम्र लगभग 40 वर्ष के बाद ही शुरू होता है। इस तरह इस वर्जना एवं नसीहत के माध्यम से बच्चे और युवाओं को शराब से दूर रख कर एक स्वस्थ्य समाज की कल्पना की गर्इ है। समाज में अपने घर में निर्मित हँड़िया ही नेगचार-अनुष्ठान में मान्य है, अंगरेजी शराब की मान्यता नहीं है। स्पष्ट है कि लोग हँड़िया पीने के सिर्फ एक पहलु को देखते हैं किन्तु दूसरे पहलु अर्थात बड़े-बुजुर्ग की बातों को नजर अंदाज कर दिया करते हैं जो समाज के लिए हानि कारक सिद्ध हो रहा है।
जनजातीय जन स्वास्थ की अवधारणा का एक मजबूत पक्ष गर्मी के दिनों में भोजन पकाने का तरीका है। साधारणतया उरांव महिलाएं गर्मी के दिनों में भात पकाते समय माड़ पसाकर पूरे बर्तन में पानी भर देती हैं। यह पानी, भात के साथ गरम हो जाता है। संभवत: भात और पानी का तापक्रम निर्जिवाणुकरण के तापक्रम के लगभग या उससे उपर आ जाता है। इस पानी-भात को गर्मी के दिनों में खाकर धूप में भी देर तक काम किया जाता है। इस पानी-भात में नमक मिलाने से ओ.आर.एस. की तरह का घोल तैयार हो जाता है, जिससे धूप में काम करते हुए डिहाइडे्रशन से बचा जाता है।
इस तरह उपरोक्त तमाम चीजें अभी भी मौजूद हैं जो जनजातीय जन स्वास्थ्य की अवधारणाओं को परिलक्षित करता है। जरूरत है जो अच्छी चीजें समझने की और प्रोत्ससहित एवं संवर्धित करने की।
- डॉ नारायण उराँव ‘‘सैन्दा’’